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गुंडागर्दी करते फ़ौजी
अपने अनुशासन के लिए जानी जाने वाली हमारी फ़ौज के सिपाही ही जब अनुशासन की धज्जिया उड़ाते हुए आम जनता को बूटों तले रौदने लगे तो इसे क्या कहा जायेगा. सीमा पर दुश्मनों से हमारी रक्षा करने वाले फौजियो के प्रति आम तौर पर समाज में एक आदर का भाव रहता है, लेकिन आये दिन यात्रियों को ट्रेनों से धक्का देकर उनकी सीट हथिया लेने की घटनाये जब अखबारों की सुर्खियाँ बनतीं है तो सीमा पर अपनी जान नियोछावर करने वाले इन फौजियों के प्रति मन में घृणा का भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है.
पिछले दिनों अखबारों में खबर छपी कि बरेली स्टेशन से दस -बारह फ़ौजी गौहाटी एक्सप्रेस की एक बोगी में चढ़े और चढ़ते ही उन्होंने यात्रियों को बूटों की ठोकरों से बड़े ही निर्दयेता के साथ बाहर धकेलते हुए उनकी सीटों पर कब्जा कर लिया. पूरी बोगी में हडकंप मच गया और थोड़ी ही देर बाद ट्रेन को एक छोटे से स्टेशन पर रोकना पड़ा. फोन घनघनाने लगे, स्टेशन मास्टर ने रेलवे कंट्रोल रूम को इसकी सूचना दी. रेलवे पुलिस आ गयी लेकिन किसी की भी हिम्मत उनपर कार्रवाई की नहीं हुई. ट्रेन चली गयी और यात्रियों को दूसरी ट्रेन से गंतव्य तक रवाना किया गया. कोई एफ़.आयी.आर. नहीं, कोई कार्रवाई नहीं, निरंकुश फौजियों के सामने सब बौने साबित हुए,
यह देश का कैसा कानून है कि फ़ौजी सार्वजनिक स्थलों पर उत्पात मचाएं, नियम काएदे तोड़े लेकिन उनको सजा सिर्फ उनका फ़ौजी अफसर ही दे सकता है. सिविल इलाको में आकर अराजकता फैलाना उनका रोज का शगल बन गया है. व्यस्ततम बाज़ारों में बड़े बड़े ट्रक लेकर घुस आना और जाम की स्थिति पैदा कर पुलिस से भीड़ जाना आम बात हो गयी है.
कहते है बन्दुक लेकर कोई भी उत्पात मचा ससकता है. गुंडे मवाली डकैत भी तो यही करते है लेकिन उनको कानून कि चाबुक से सही रास्ते पर लाने का प्रयास किया जाता है. फिर फौजियों की निरंकुशता क्यों? हथियारों के बल पर आम नागरिक को भयभीत करना क्या कानून का मज़ाक नहीं?
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